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शिव और शक्ति के मिलन की बेला है शिवरात्रि

महाशिवरात्रि के अवसर पर विशेष लेख

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ओमप्रकाश श्रीवास्‍तव
आईएएस अधिकारी और
धर्म दर्शन और साहित्‍य के अध्‍येता

जनमानस में शिव सहज-सरल, भोलेभंडारी, संसारी-गृहस्‍थ हैं तो दूसरी ओर अनादि-अनन्‍त ब्रह्म हैं जो अपनी शक्ति के साथ मिलकर सृष्टि का सृजन, पालन और विसर्जन करते हैं। एक पौराणिक कथा कहती है कि शिव‍रात्रि पर जंगल में भटक गया भूखा-प्‍यासा बहेलिया रात में हिंसक पशुओं से बचने के लिए बेल के वृक्ष पर चढ़ गया । उसके शरीर से लगकर एक बेलपत्र नीचे शिवलिंग पर गिरा और शिव उस पर प्रसन्‍न होकर वरदान देने प्रकट हो गये। एक अन्‍य कथा के अनुसार शिवमंदिर का घंटा चुराने आया चोर शिवलिंग पर चढ़ा और उसे ही पूर्ण समर्पण मानकर शिव प्रसन्‍न हो गये। यह कथाएँ शिव के सहज-सरल, भोलेभंडारी स्‍वरूप को हमारे मानस में स्‍थापित करती हैं वहीं एक कथा कहती है कि विवाह के अवसर पर शिव से पूछा कि उनके पिता कौन हैं ? उत्‍तर मिला – ब्रह्मा। फिर पूछा बाबा कौन हैं ? उत्‍तर मिला – विष्‍णु। फिर पूछा और परबाबा कौन हैं ? उत्‍तर मिला – सो तो हम ही हैं। शिव के अनादि-अनन्‍त ब्रह्म होने के दार्शनिक भाव को सामान्‍य लोगों को समझाने के लिए कितनी प्रभावी कथा है।


शिव के इस विरोधाभाषी स्‍वरूप को समझना, अनुभूति के स्‍तर पर उससे एकत्‍व पाना इतना आसान नहीं है। सनातनधर्म का आधार वेदों का उच्‍चस्‍तरीय ज्ञान है जो ब्रह्म और उसकी माया शक्ति के माध्‍यम से सृष्टि के उद्भव की गुत्‍थी को सुलझाता हुआ प्रत्‍येक मनुष्‍य को ब्रह्म से एकरूप होने की प्रकिया बताता है। यह ज्ञान बौद्धिक रूप से नहीं समझा जा सकता। अनुभव, बुद्धि से परे होता है। इस अनुभव को आध्‍यात्मिक शब्‍दाबली में विज्ञान (साइन्‍स नहीं) कहा जाता है। गीता में भगवान् ने ‘ज्ञानं विज्ञान सहितम्’ अर्थात् अनुभव सहित बताया है (गीता 9.1)।
ज्ञान से विज्ञान तक जाने अर्थात् पहले सिद्धांतों को समझने और फिर उसे अनुभव करने के लिए बुद्धि की आवश्‍यता होती है। ऐसी प्रदीप्‍त बुद्धि हर व्‍यक्ति में नहीं होती, हजारों में कोई एक ऐसी विशेषता वाला होता है और प्रयत्‍न करता है (गीता 7.3)। तब आम लोगों का क्‍या होगा? क्‍या वे धर्म को उपलब्‍ध नहीं हो सकेंगे ? सुख-शान्तियुक्‍त, धर्ममय जीवन हर व्‍यक्ति का अधिकार है और सनातनधर्म में इसकी व्‍यवस्‍था है। उसमें सामान्‍य जीवनचर्या, त्‍यौहारों, उत्‍सवों के माध्‍यम से सीधे अनुभूति (विज्ञान) प्राप्‍त करने का अवसर दिया गया है। ऐसा ही अद्भुत त्‍यौहार है- शिवरात्रि।
ब्रह्म तो सच्चिदानन्‍द है अर्थात् सत् (अस्तित्‍त्‍व) है, चित् (चेतन) है और आनन्‍द स्‍वरूप है। ब्रह्म का रूप-रंग नहीं है, वह अनादि-अनन्‍त है, बुद्धि उसे समझ नहीं सकती, वाणी उसे बता नहीं सकती तब क्‍या रास्‍ता है उसे जानने का ? सनातनधर्म ने उस ब्रह्म को ही शिव के रूप में जानने का अवसर दे दिया। शिव भी अनादि हैं, उनका कोई अवतार नहीं होता, वह सदैव से हैं। वह प्रसन्‍नमुद्रा में निर्विकार, निष्क्रिय बैठे हैं। यही तो वेदों का ब्रह्म है जो चेतन है परंतु निष्क्रिय है। वेदों में भी ब्रह्म को रुद्र और शिव कहा गया है – एको हि रुद्रो न द्वितीयाय तस्‍थुर्य (श्‍वेताश्‍वतर उप.) ।
दूसरी ओर पार्वती हैं जो पैदा पर्वत से हुई हैं, पर्वत जड़ है। पार्वती का मूल ही जड़ है परंतु वह सक्रिय हैं। शिव को पाने के लिए कठिन तप करती हैं। अन्‍नजल त्‍याग देती हैं, पत्तों पर जीवन बिताया और फिर वह भी छोड़ कर ‘अपर्णा’ हो गईं। शिव को पाने के लिए अभीप्‍सा और सक्रियता की पराकाष्‍ठा है यह। वेदों की प्रकृति के भी तो यही गुण हैं, वह जड़ है परंतु सक्रिय है। कैसा विरोधाभाष है? ब्रह्म जो चेतन है वह निष्क्रिय है और प्रकृति जो जड़ है वह सक्रिय है। इसी विरोधाभाष के मेल से सृष्टि का उद्भव है। इसी शिव और पार्वती के मिलन से सृष्टि के उद्भव का उत्‍सव है – शिवरात्रि। ईशान संहिता के अनुसार निराकार शिव का शिवलिंग के रूप में आविर्भूत (शिवलिंगतयोद्भूत:) होने का अवसर है – शिवरात्रि।

वेदों के अनुसार ब्रह्म अपनी मायाशक्ति के माध्‍यम से स्‍वयं को सृष्टि के विविध रूपों में व्‍यक्‍त करता है। माया न हो तो ब्रह्म की अभिव्‍यक्ति ही संभव नहीं है। ब्रह्म की शक्ति माया है। शिव की शक्ति पार्वती हैं। पार्वती के तप के अभाव में शिव को कोई प्रेरणा नहीं थी, काम को तो वे पहले ही भस्‍म कर चुके थे। पार्वती ही हैं जो जगत् के उद्धार के लिए शिव को अपनी निर्विकार स्थिति को छोड़ने को बाध्‍य करती हैं। केवल निष्क्रिय ज्ञान किसी काम का नहीं है। इसी प्रकार बुद्धि और विवेक के बिना, सक्रियता भी जीवन को नष्‍ट कर देगी। इसलिए हमें जीवन में चेतना की भी आवश्‍यकता है और सक्रियता की भी। इसलिए शिव और पार्वती दोनों के आश्रय की जरूरत है। शिवरात्रि दोनों की संयुक्‍त कृपाप्राप्ति का अवसर है।
मानस में शिव को ‘अखंडं अजं भानु कोटि प्रकाशम्’ कहा है । यह सर्वशक्तिमान ब्रह्म केवल विशेषाधिकार या विशेष बुद्धि प्राप्‍त लोगों के लिए नहीं है इसलिए इस शिव के साथ निचली योनियों के भूत-प्रेत-पिशाच, विकृत शरीर वाले, मोटे-पतले सभी साथ हैं। सभी के लिए शिव सुलभ हैं। ब्रह्म का वर्णन असंभव है इसलिए उसे विरोधी गुणों से बताते हैं जैसे – बिनु पग चले सुने बिनु काना – इसी प्रकार शिव के विरोधी गुणों के माध्‍यम से उसी ब्रह्म को इंगित किया गया है। वह अर्धनारीश्‍वर हैं- आधे स्‍त्री हैं आधे पुरुष। गृहस्‍थ भी हैं तो संन्‍यासी भी । वेशभूषा अशुभ और डरावनी है पर कल्‍याण करते हैं – असुभ बेस सिवधाम कृपाला । भोले भंडारी हैं तो ताण्‍डव करने में भी सक्षम हैं। वह देवता और असुर दोनों के गुरु हैं, दोनों के मित्र हैं, दोनों के आराध्‍य हैं और दोनों के स्‍वामी हैं (शिवसहस्रनामस्‍तोत्र 9)। दोषपूर्ण वस्‍तु भी शिव के संपर्क में आकर शुभ हो जाती है। धतूरे जैसा विषैला पौधा और मृत्‍यु का प्रतीक नाग भी शिव के संपर्क में पूज्‍य बन जाता है। सृजन तभी होता है जब पुराने का विसर्जन हो । इसलिए शिव महाकाल हैं, मृत्‍यु के भय को दूर करते हैं।
दूसरी ओर उनकी शक्ति पार्वती हैं जो सृष्टि का सृजन करती हैं। वह दैवीय माया हैं । गीता में भगवान् ने माया को दैवी बताया है – दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्‍यया (गीता 7.14) । सृष्टि का अस्तित्‍त्‍व ही माया के कारण है। धन-संपत्ति, नाते, रिश्‍ते सभी माया के कारण हैं। माया के बगैर संसार ही नहीं चल सकता । बिना सोचे-बिचारे माया से दूर भागना नहीं है, वह तो दैवीय है । उसे समझ कर उससे पार शिव तक जाना है। इसके लिए मायाशक्ति दैवी पार्वती की आराधना का अवसर है शिवरात्रि।
इस दिन जगत के कल्‍याण के लिए शिव और पार्वती का विवाह हुआ और उनसे जन्‍मे पुत्र कार्तिकेय ने तारक असुर का नाश किया। यह अवसर साधारण चेतना के लोगों के लिए ईश्‍वर के विवाह का उत्‍सव है जिसमें पूजा, अर्चन, भजन से शिव पार्वती को प्रसन्‍न कर कामना पूर्ति की जाती है तो निष्‍काम योगियों के लिए शिव के ध्‍यान के माध्‍यम से ब्रह्म से एकत्‍व का अवसर है। इस अवसर पर उपवास करने और जागते रहने का सर्वाधिक महत्‍व है। उपवास का अर्थ मात्र भोजन का त्‍याग नहीं बल्कि पाँच ज्ञानेन्द्रियों के माध्‍यम से मन में जा रहे दूषित विचारों का निषेध करना भी है। शिव वह अनन्‍त विस्‍तार है जिसमें ब्रह्माण्‍ड उदय और अस्‍त होते हैं। वहाँ न सत् है न असत्, न सूर्य है न चंद्र। शिवरात्रि में जागते रहने का अर्थ है शिवरूपी अनन्‍त रिक्‍तता के अंधकार को चतुर्दशी और अमावश्‍या के मिलन की अंधेरी रात्रि में अनुभव करना। इस प्रकार शिवरात्रि शिव की आराधना में जागते रहने के साथ-ही-साथ आंतरिक जागरण की रात्रि भी है। हम इस जागरण के साक्षी बन सकें यही शिवरात्रि की सार्थकता है।

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