जनाधार गवां बैठे जातियों के दलदल में फंसे दल
सबकी पसंद नहीं बन पाई बसपा, सपा और जेडीयू जैसी पार्टियां

भोपाल। वोटों की राजनीति में जातियों का भले ही महत्व है, लेकिन इसमें फंसे दल और नेता जनाधार नहीं बचा पाए हैं। चुनावी बिसात में भाजपा और कांग्रेस के मुकाबले तीसरे धड़े के दलों को इसका सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा हैं। यदि देश को छोड़ दिया जाय तो बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी के साथ गोंडवाना गणतंत्र पार्टी मप्र में नजीर के तौर पर सामने आई है।
इनमें यदि एनसीपी यानी नेशनल कांग्रेस पार्टी और जनता दल यूनाईटेड जहां अपनी जमीन पूरी तरह खो चुके हैं। 2018 के विधानसभा चुनावों में 230 सीटों में यह जहां भी प्रत्याशी नहीं खड़ा कर पाए थे। वहीं दो दशक पहले विधानसभा में जनजातीय समुदाय की आवाज करने वाली गोंगपा और पिछड़ा वर्ग में सुमार यादव, मुस्लिम सहित अन्य जातीयों के सहारे मप्र में पांव पसारने वाली समाजवादी पार्टी का प्रभाव निर्वाचन आयोग की मान्यता प्राप्त दलों की सूची तक सिमटकर रह गया हैं। लिहाजा गोंगपा को बहुजन समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन कर मैदान में उतरना पड़ रहा है। 2013 के चुनावों में सामने आया जयस भी कोई खास मुकाम हासिल नहीं कर पाया। इसके साथ समाजवादी पार्टी 50 सीटों पर भी प्रत्याशी नहीं ढूंढ पाई है। जबकि नामांकन दाखिल करने के लिये उम्मीदवारों के सामने बमुश्किल एक दिन भी नहीं बचा है।
बसपा भी नहीं बचा पाया वोट बैंक
प्रदेश में 1990 के दशक में बहुजन समाज पार्टी ने अनुसूचित जाति और ओबीसी में सुमार पटेल व कुर्मी के सहारे अपनी जगह बनाई। जाति के नाम पर समाज में जहर घोलने की मानसिकता के कारण आज न केवल वजूद खो बैठी बल्कि अपना वोट बैंक भी नहीं बचा पाई है। आंकलन इसी से किया जा सकता है कि ग्वालियर-चंबल, बुंदेलखंड और विंध्य क्षेत्र में जनाधार के कारण 2003 में पार्टी को 7.26, 2008 में 8.72 और 2013 के विधानसभा चुनाव में 6.29 प्रतिशत मत मिले थे। वहीं 2018 के चुनावों में यह गिरकर 5.1 प्रतिशत पर पहुंच गया। कमोबेश यही हाल समाजवादी पार्टी का भी रहा है।
कांग्रेस के वचन पत्र में ओबीसी आरक्षण
अन्य जातियों को नकारकर देश में ओबीसी की राजनीति करने वाले दल समय के साथ अपना अस्तित्व गवां बैठे। मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने वाले प्रधानमंत्री स्व व्हीपी सिंह और जनता दल को लोग भूल चुके हैं। वहीं कांग्रेस ने इस ऐतिहासिक तथ्य को नजर अंदाज करते हुए अपने वचन पत्र में ओबीसी जनगणना और 27 प्रतिशत आरक्षण का वायदा किया है। यह स्थिति तब सामने आई है जबकि हाईकोर्ट जबलपुर इसे असंवैधानिक ठहरा चुका है। अब देखना यह है कि यह मुद्दा कांग्रेस को कहां ले जाकर खड़ा करता है।
मप्र में इसलिये जातियों पर जोर
मप्र में राजनैतिक दल जातियों पर इसलिये भी जोर देते हैं क्योंकि यहां पर करीब 50.09 प्रतिशत आबादी जहां ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) की आंकी गई है। वहीं अनुसूचित जाति (एससी) की आबादी 15.6 प्रतिशत है। इसी तरह अनुसूचित जनजाति (एसटी) की आबादी 21.1 प्रतिशत है। इसके बाद शेष जातियां हैं। लिहाजा कांग्रेस सहित दूसरे राज्य स्तरीय दलों ने थोकबंद वोट की चाहत में राजनीति की दिशा को जातियों में समेट दिया है।
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