कभी-कभी लोग कहते हैं, साधु-संन्यासी बहुत कष्ट सहते हैं। मैं इससे उल्टा सोचता हूं। साधुओं के लिए कष्ट कम हैं। गृहस्थ के लिए कष्टों का अंबार-सा लगा हुआ है। वह मूर्च्छा से घिरा हुआ है, इसलिए उसे ये कष्ट, कष्ट जैसे प्रतीत नहीं होते।
मूर्च्छा दुख का कारण है। मूर्च्छा जागरण का अभाव है। आदमी सोता है, इसीलिए दुख होता है। सोना बहुत आवश्यक भी है और सोना एक समस्या भी है। सोते समय श्वास की गति बढ़ जाती है। वह छोटा हो जाता है। छोटा श्वास आयु को कम करता है। जो अधिक समय सोता है, वह अल्प आयुष्क होता है। परिमित समय तक सोता है तो आदमी ठीक-ठीक जी लेता है।
हर प्रवृत्ति के साथ समस्या जुड़ी हुई होती है। सोना जरूरी है तो सोना खतरनाक भी है। दस-बारह घंटा सोना अल्पायु होना है। जो आदमी लंबा जीना चाहता है, उसे सोने की सीमा कम करनी चाहिए। जो मूर्च्छित है, वह सोया हुआ है। सामाजिक स्तर पर मूर्च्छा भी जरूरी मानी गई है। यदि मूर्च्छा नहीं होती है तो बच्चे का लालन-पालन नहीं हो सकता। कोई संबंध ही नहीं होता। कोई किसी चीज की सुरक्षा नहीं कर पाता। मूर्च्छा है इसीलिए प्रवृत्ति का यह चक्र चल रहा है। मूर्च्छा नहीं होती तो सोने को कौन इकट्ठा करता? मूर्च्छा नहीं होती तो हीरों-पन्नों को कौन संजोकर रखता? जैसे पत्थर ठोकर में पड़े रहते हैं, वैसे ही वे भी पड़े रहते। तो फिर वस्तु का यथार्थ मूल्यांकन नहीं होता। कहां पत्थर और कहां हीरा! किंतु मूर्च्छा सबको अपने-अपने स्थान पर टिकाए हुए है।
फकीर के पास एक सम्राट आया। फकीर जानता था। सम्राट जब जाने लगा, तब फकीर ने पांच-दस कंकड़ सम्राट को देते हुए कहा, ‘मेरे ये कंकड़ ले जाओ। जब तुम मरकर अगले लोक में जाओगे, तब मैं वहां तुमसे मिलूंगा। तब मेरे ये कंकड़ मुझे दे देना।’ सम्राट हंसकर बोला, ‘बड़े भोले हो तुम! क्या कोई व्यक्ति मरकर भी अपने साथ कुछ ले जा सकता है? यह असंभव है।’ फकीर बोला, ‘तुम सच कह रहे हो?’ सम्राट बोला, ‘यह सच है। सब जानते हैं।’ फकीर ने कहा, ‘तो फिर प्रजा का शोषण कर तुम इतना वैभव क्यों एकत्रित कर रहे हो? मैं तो समझता था, और कोई ले जाए या नहीं, तुम तो अवश्य ही सारा वैभव साथ ले जाओगे। यदि नहीं ले जा सकते तो फिर इतनी मूर्खता क्यों कर रहे हो?’ सम्राट की आंख खुल गई।
मूर्च्छा के कारण ही संचय किया जाता है। कभी-कभी मैं सोचता हूं, मूर्च्छा नहीं होती तो समाज और परिवार कैसे चलता? माता बच्चे के पालन-पोषण में इतना कष्ट सहती है। क्यों? मूर्च्छा है इसीलिए। पशु-पक्षियों की माताएं भी बच्चों के लिए, अपनी संतान के लिए क्या नहीं सहतीं? मूर्च्छा के कारण सारा कष्ट सह लिया जाता है। इस दृष्टि से सामाजिक प्राणी के लिए यह नहीं कहा जा सकता कि मूर्च्छा सर्वथा हेय है। वह छोड़ भी नहीं सकता। जो कुछ एक-दूसरे के लिए होता है या किया जाता है, वह सारा मूर्च्छा और मोह के कारण ही हो रहा है। मोह नहीं होता तो कौन पढ़ाता बच्चों को? कौन उन्हें तैयार करता? कौन उन्हें व्यवसाय सिखाता? फिर तो सब अकेले होते। सब विरागी या विरक्त होते। अकेला आदमी विरागी बनकर जीवनयापन कर सकता है, पर समाज वैसा नहीं कर सकता। संसार ऐसा बन नहीं सकता। यदि संसार ऐसा होता है तो वह फिर संसार नहीं, व्यक्ति होगा। आदमी अनगिन कष्टों को सहता हुआ भी जी रहा है। इसका मुख्य कारण है— मूर्च्छा।
कभी-कभी लोग कहते हैं, साधु-संन्यासी बहुत कष्ट सहते हैं। मैं इससे उल्टा सोचता हूं। साधुओं के लिए कष्ट कम हैं। गृहस्थ के लिए कष्टों का अंबार-सा लगा हुआ है। वह मूर्च्छा से घिरा हुआ है, इसलिए उसे ये कष्ट, कष्ट जैसे प्रतीत नहीं होते। मूर्च्छा एक आवरण है। ऐसा आवरण कि जिसमें सारे कष्ट ढक जाते हैं।
पति ने पत्नी को या पत्नी ने पति को तलाक दे दिया। पति चल बसा। पत्नी रह गई। पत्नी मर गई। पति रह गया। दोनों मर गए। छोटे-छोटे बच्चे रह गए। ये सारी कितनी कठिन परिस्थितियां हैं? दिल दहलानेवाली स्थितियां हैं। इन स्थितियों में भी आदमी सुख मानकर जीता ही चला जा रहा है। एक छोटे बच्चे से भी पूछा जाए कि तुम्हारे माता-पिता मर गए। तुम असहाय हो। क्या साधु बनोगे? वह तत्काल सिर हिलाकर कहेगा, साधु तो नहीं बनूंगा। इसका कारण है मूर्च्छा। उसे लगता ही नहीं कि वह असहाय है। एक मूर्च्छा हजारों कष्टों को शांत कर देती है, उनका निवारण कर देती है। यदि ऐसा नहीं होता तो इस दुखमय, कष्टमय और दारुण संसार में आदमी कभी जी नहीं पाता। उसको जीवित रखनेवाली वस्तु है मूर्च्छा। यह सबको जिला रही है। सब प्राणी इसकी बदौलत जी रहे हैं। बड़ा भाई— छोटे भाई को, पिता— पुत्र को तैयार करता है। आगे चलकर छोटा भाई, बड़े भाई को दर-दर का भिखारी बना देता है। पुत्र, पिता को घर से निकाल देता है। ऐसी स्थितियां होती हैं। इसे हम देखते हैं। पर बड़ा भाई, छोटे भाई को तैयार करता है और पिता, पुत्र को योग्य बनाता है। इन सबके पीछे मूर्च्छा काम करती है। इसलिए सामाजिक और पारिवारिक वातावरण को सजीव रखने के लिए मूर्च्छा की अनिवार्यता स्वीकार करनी होगी।
सामाजिक व्यक्ति मूर्च्छा को सर्वथा छोड़ दे, यह असंभव बात है। किंतु मूर्च्छा के चक्रव्यूह को तोड़ना जरूरी है। या कहें कि इस मूर्च्छा रूपी मोह को साधना जरूरी है, ताकि आप इसके गुलाम न बनें। यह मूर्च्छा तमस और राजस का प्रतीक न बने, बल्कि सत्व का आधार लेकर सात्विक बनें। हमें यह ध्यान रखना है कि जब तक इस मूर्च्छा का चक्रव्यूह चलता रहेगा, तब तक दुखों का अंत नहीं होगा। उसकी एक सीमा हो। वह अनंत न बने, यह अपेक्षित है। मूर्च्छा केवल समाज को चलानेवाली कड़ी के रूप में स्वीकृत हो तो इतना अनर्थ नहीं होता। पर आज उसे अनंत आकाश प्राप्त है। यह अहितकर है। ध्यान का पुष्ट परिणाम है मूर्च्छा के चक्र का टूटना।
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