लक्ष्मी प्रसाद चौधरी
स्नातकोत्तर शिक्षक (हिंदी)
केंद्रीय विद्यालय काठमांडू नेपाल
साहित्य में यथार्थवादी परंपरा की आधारशिला रखने वाले मुंशी प्रेमचंद बेहद ईमानदार कलमकार थे। ईमान की कलम में बहुत पैनी धार होती है जो उनके साहित्य में दृष्टव्य है। यद्यपि प्रारंभिक रचनाओं में प्रेमचंद की लेखनी, कल्पना और रूमानियत के रंगों से जीवन-प्रसंगों को जीवंत करते रही तथापि समय की धारा के साथ उनके जीवन-संघर्षों ने उन्हें आदर्शोन्मुख यथार्थवादी और बाद में विशुद्ध यथार्थवादी बना दिया । यदि यथार्थवाद और आदर्शवाद शब्दों के अर्थों पर गौर करें तो ‘वास्तव में क्या है’-यह ‘यथार्थवाद’ है और ‘क्या हो सकता है’ वह आदर्शवाद। यथार्थवाद निराशा को जन्म देता है इसमें मनुष्य का मनुष्य पर संदेह पुष्ट हो जाता है और हर ओर बुराई का कीचड़ बदबू मारता है ।
सामाजिक ताने-बाने के यथार्थ के धरातल पर जहां ‘पंच परमेश्वर’ कहानी में अलगू चौधरी और जुम्मन शेख का पुराना मित्रता रूपी वृक्ष सत्य का एक झोखा भी न सह सका; उनका मिलन तलवार की धार और म्यान का मिलन बन गया। कहानी के अंत में मित्रता की मुरझाई लता फिर हरी हो जाती है। अपने उत्तरदायित्व का ज्ञान बहुधा हमारे संकुचित व्यवहारों का सुधारक होता है । जब हम राह भटकने लगते हैं तब यही ज्ञान हमारा विश्वसनीय पथ-प्रदर्शक बन जाता है। पंच की जुबान से खुदा बोलता है । यह प्रेमचंद का आदर्श है।
‘प्रेमाश्रम’ और ‘सेवासदन’ जैसे उपन्यास जहां एक ओर कटु यथार्थ को उकेरते हैं; वहीं दूसरी ओर सामाजिक समस्याओं और मूल्यों के अंतर्विरोध बाद में एक आदर्श समाधान के रूप में प्रतिस्थापित होते हैं । ‘सेवासदन’ उपन्यास में देखा जा सकता है कि न चाहते हुए भी इंसान को परिस्थितियां कैसे पथभ्रष्ट बना देती हैं । उपन्यास की नायिका सुमन वेश्यावृत्ति के दलदल में फँस जाती है और फिर समय की मार के बाद चंचलता और तृष्णा को त्यागकर धन की अपेक्षा धर्म का आचरण करती है। आज भी समाज में ऐसी कई ‘सुमन’ हैं, जो समाज की मुख्यधारा से जुड़कर बहुत कुछ बेहतर करना चाहती हैं।
दशकों के बाद भी बिखरते हुए परिवार को हमारे आदर्श मूल्य कैसे जोड़े रखते हैं ? इस दृष्टि से ‘बड़े घर की बेटी’ कहानी आज भी प्रासंगिक है। भौतिक सुख-साधनों के प्रदर्शन की प्रवृत्ति बेनी माधवसिंह की आर्थिक व्यवस्था की पोल खोलकर रख देती है। जब बड़े घर की बेटी आनंदी से उसका देवर लालबिहारी शिकार करके लाई गई चिड़ियों का माँस पकाने को कहता है तब घर में रखा एक पाव घी माँस पकाने में ही खत्म हो जाता है और परोसी गई दाल में घी न पड़ने पर हुए विवाद में आग बबूला होकर अपनी खड़ाऊँ फेंककर भाभी को दे मारता है। यह बात आनंदी के पति श्रीकंठ को पता चली तो परिवार बिखराव की कगार पर आ जाता है। गाँव के मौकापरस्त लोग इस बिखराव पर खूब रस लूटते हैं किंतु लालबिहारी के पश्चाताप के आंसू आनंदी के मन के क्लेश को धोकर दूर कर देते हैं। जिसके कारण रिश्ते दाँव पर लग गए थे वही रिश्तों को मजबूती देती है। ठीक इसी तरह ‘माँ’ कहानी के पात्र आदित्य के देश और समाज हित में सब कुछ होम कर देने वाले आचरण के विरुद्ध उसका पुत्र प्रकाश विलायती अंधकार की ओर आकर्षित हुआ तब उसकी मां करुणा की वेदना को पाठक समझ सकता है । बेटे को सही रास्ते पर लाने का करुणा का प्रयास आदर्श की ओर कथाकार का झुकाव है।
मुंशी प्रेमचंदजी की ‘नमक का दरोगा’ कहानी आज भी ईमानदार और कर्मठ व्यक्तित्व के महत्व को स्वीकार करती है। कहानी में पंडित अलोपीदीन कहते हैं “परमात्मा से यही प्रार्थना है कि वह आपको सदैव वही नदी के किनारे वाला बेमुरौवत उद्दंड किंतु धर्मनिष्ठ दारोगा बनाए रखे।“ यह प्रेमचंद का आदर्शोन्मुख यथार्थवाद ही है; जो ‘लॉटरी’ जैसी कहानियों में थोड़ा कमज़ोर होकर यथार्थवाद की ओर कदम बढ़ाता है जिसमें पारस्परिक स्वार्थ के कारण लाटरी का लोभ परिवार और दोस्ती को तहस-नहस कर देता है । बाद में ‘गोदान’ जैसे आधुनिक क्लासिक उपन्यास में मरणासन्न विपन्न किसान से गौ दान कराना कटु यथार्थ की अभिव्यक्ति है।
‘पूस की रात’ कहानी में पूस की कड़कड़ाती ठंडी रात में खेत की रखवाली करते हुए मड़ैया में ठंड से बचने के लिए जबरे कुत्ते को अपनी गोद में चिपकाए रखना और उसकी दुर्गंध को भी सहन करके गर्मी का एहसास करना और नीलगायों के द्वारा खेत का सफाया करने के बावजूद खुश होना कि रात को ठंड में खेत में सोना तो नहीं पड़ेगा।
इसी तरह ‘कफ़न’ कहानी में उपन्यास सम्राट का आदर्श तार-तार हो गया । जब माधव की पत्नी बुधिया प्रसव-पीड़ा में तड़प रही है और निष्ठुर घीसू और उसके बेटे माधव दोनों के लिए भुने हुए आलूओं की कीमत मरती हुई औरत से ज्यादा है । उनमें से कोई भी इस डर से उसे अंदर देखने नहीं जाना चाहता कि उसके जाने पर दूसरा आदमी सारे आलू खा जाएगा । कफ़न का चंदा हाथ में आने पर कफ़न खरीदे बिना ही बाप-बेटे दोनों उन पैसों को शराब, पूरी, चटनी, अचार और कलेजियों के ऊपर खर्च कर देते हैं। वास्तव में भूख और अभाव के सामने सभी मानवीय मूल्य और आदर्श हार जाते हैं। आज भी समाज में ऐसे कई उदाहरण देखे जा सकते हैं ।
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