बुद्धि और विवेक के बिना धर्म अंधा है तो श्रद्धा और विश्वास के बिना निष्प्राण
विज्ञान और धर्म के संबंध में सामान्य रूप से कह दिया जाता है कि विज्ञान तो तर्क, बुद्धि और विवेक पर आधारित है जबकि धर्म का आधार आस्था और विश्वास है। इस प्रकार बुद्धि-विवेक और आस्था-विश्वास को विरोधी मानने वाले लोग विज्ञान और धर्म को भी परस्पर विरोधी करार देते हैं। वहीं धर्म के नाम पर पाखंड और धंधे करने वाले लोग, जिन्हें तुलसीदास जी —धींग धरमध्वज धंधक धोरी – कहते हैं, आस्था-विश्वास के नाम पर अपने स्वार्थ साधने के लिए कुछ भी अनर्गल करना शुरू कर देते हैं। इसी का परिणाम है कोई धर्म के नाम पर हरी चटनी और समोसा खिला रहा है, कोई अपने धाम पर हर सप्ताह आने का आदेश दे रहा है, कोई सोशल मीडिया से आपकी जानकारी एकत्र करके आपको ही बताकर चमत्कारी होने का दावा कर रहा है और कोई लाखों की भीड़ इकट्ठी करके अभिमंत्रित वस्तुएँ बॉंट रहा है और भीड़ इसी को धर्म मानकर भेड़चाल में शामिल हो रही है।
पाश्चात्य परम्परा में रीजन (तर्क) और फेथ (विश्वास) को विरोधी माना जाता है परंतु सनातन दर्शन में बुद्धि और विश्वास परस्पर विरोधी नहीं हैं बल्कि पूरक हैं। जीवन में समय और परिस्थिति के अनुसार दोनों का अपना स्थान है ।
पाश्चात्य परम्परा में रीजन (तर्क) और फेथ (विश्वास) को विरोधी माना जाता है परंतु सनातन दर्शन में बुद्धि और विश्वास परस्पर विरोधी नहीं हैं बल्कि पूरक हैं।
ओमप्रकाश श्रीवास्तव
आईएएस अधिकारी तथा
धर्म, दर्शन और अध्यात्म के अध्येता
ई मेल – opshrivastava@ymail.com
धर्म प्रश्न करने से शुरु होता है और बुद्धि-विवेक के प्रयोग द्वारा स्वयं उत्तर प्राप्त करने के बाद दृढ़ श्रद्धा-विश्वास पर समाप्त होता है। अधर्म उत्तर से शुरू होता है और अंधविश्वास पर समाप्त होता है।
पहले हम विज्ञान के क्षेत्र में विचार करें। वैज्ञानिक, प्रकृति की किसी घटना को देखता है और उसके कारण पर विचार करके किसी सिद्धांत की कल्पना करता है और विश्वास करता है कि उसके द्वारा परिकल्पित किया गया सिद्धांत सही है, फिर तर्क, बुद्धि और विवेक का प्रयोग करते हुए उसकी पुष्टि वैज्ञानिक प्रयोगों और प्रकृति की घटनाओं के निरीक्षण के द्वारा करता है और तब उस पर दृढ़ विश्वास करता है। उदाहरण के लिए आइंस्टीन ने सापेक्षिता के सिद्धांत की कल्पना की और सोचा कि देश और काल (स्पेश एंड टाइम) गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से वक्र (कर्वेचर) हो जाता है। उन्होंने इस पर लम्बा शोध किया और गणितीय रूप से इसे सिद्ध किया। इसके बाद सैकड़ों वैज्ञानिकों ने ब्रह्माण्डीय घटनाओं का निरीक्षण करके इस सिद्धांत की पुष्टि की । यदि आइंस्टीन को अपने सिद्धांत की सत्यता पर विश्वास नहीं होता तो वह आगे काम करते ही क्यों ? मैडम क्यूरी को रेडियोधर्मिता की खोज को लेकर विश्वास न होता तो वह अपने जीवन को खतरे में डालकर वर्षों तक अनुसंधान कैसे कर पातीं ? इस प्रकार विज्ञान में साधारण विश्वास करना, फिर बुद्धि-विवेक से उसका परीक्षण करना और इसके बाद प्रयोगों से पुष्टि होने पर उस नियम में दृढ श्रद्धा का स्थान आता है।
सारा जीवन बुद्धि-विवेक और श्रद्धा-विश्वास के संतुलन पर टिका है। बुद्धि-विवेक सीढ़ी है तो श्रद्धा-विश्वास मंजिल। बिना सीढ़ी के मंजिल पर नहीं पहुँचा जा सकता।
धर्म भी ऐसा ही है। इसमें भी विवेक-बुद्धि के बाद ही श्रद्धा-विश्वास का स्थान आता है। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है – ‘’शास्त्र के कथनों पर भी अंधविश्वास करना ठीक नहीं है। अपनी विचार शक्ति का प्रयोग करके देखना चाहिए कि शास्त्र में जो लिखा है वह सत्य है या नहीं । जिस तरह भौतिक विज्ञानों में प्रयोग करके सीखते हैं इसी प्रकार धर्म को भी जीवन में प्रयोग करके सीखना होगा।‘’
सनातन धर्म के ऋषियों ने कभी भी शिष्यों की तर्क-बुद्धि की उपेक्षा करके उनसे अन्धविश्वासी या मूढ़ भक्त होने का आग्रह नहीं किया। विश्व के किसी भी अन्य धर्म में शिष्य को गुरु से प्रश्न करने या असहमत होने की स्वतंत्रता नहीं दी जाती। यह स्वतंत्रता केवल सनातन धर्म में है। गीता में अर्जुन ने कृष्ण को भगवान् जानने के बाद भी प्रश्न-प्रतिप्रश्न किये और कृष्ण ने भी विस्तार से प्रत्येक प्रश्न का उत्तर दिया। शंकराचार्य जी कहते हैं कि – ‘’शास्त्र व गुरु के वचनों में वह विश्वास जिसके द्वारा सत्य का ज्ञान होता है श्रद्धा कहलाता है।‘’ इस प्रकार श्रद्धा, अंधविश्वास नहीं है वरन् बुद्धि की वह सामर्थ्य है जिसके द्वारा सत्य का ज्ञान होता है।
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