उत्तर प्रदेश की चुनावी रेस में क्यों सुस्त है हाथी, सिर्फ 7 विधायक हैं साथ, कैसे बनेगी बात
नई दिल्ली लखनऊ
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए राजनीतिक दलों ने बिगुल बजा दिया है। यहां तक कि कई दशकों से सत्ता से बाहर कांग्रेस भी आक्रामक तेवर दिखा रही है, लेकिन 4 बार सूबे की सीएम बन चुकीं मायावती लाइमलाइट से परे नजर आ रही हैं। लखीमपुर खीरी, हाथरस, और उन्नाव कांड जैसे कई अहम मसले ऐसे थे, जिन पर बसपा सड़कों पर उतरकर अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकती थी, लेकिन मायावती की मौजूदगी ट्विटर तक ही सीमित दिखी। ऐसे में यह सवाल उठता है कि काडर को मोटिवेट किए बिना मायावती कैसे हाथी को चुनावी रेस में आगे ले जा पाएंगी। एक तरफ मायावती खुद बहुत एक्टिव नहीं हैं, वहीं दूसरी तरफ कई अहम चेहरों को वह एक के बाद एक खो चुकी हैं।
पश्चिम उत्तर प्रदेश से बुंदेलखंड तक वह बीएसपी के कई चेहरों को पार्टी से खुद ही बाहर का रास्ता दिखा चुकी हैं। नसीमुद्दीन सिद्दीकी से लेकर हाल ही में पार्टी से बाहर किए गए लालजी वर्मा और रामअचल राजभर समेत करीब दर्जन भर नेताओं को मायावती ने निकाल दिया है। अब उनके पास कोई प्रमुख चेहरा बचा है तो वह हैं सतीश चंद्र मिश्र। ऐसे में उनकी रणनीति और सक्रियता दोनों पर सवाल उठते हैं। 2007 में मायावती जब सत्ता में आई थीं तो उनके पास ओबीसी वर्ग से आने वाले बाबू सिंह कुशवाहा, अल्पसंख्यक नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी और ब्राह्मण चेहरा सतीश चंद्र मिश्र थे।
भूलीं सोशल इंजीनियरिंग का अपना ही फॉर्मूला, कई चेहरे बाहर
इन तीन नेताओं के बूते मायावती ने अलग-अलग वर्गों को साधने का काम किया था। दलितों के अलावा ओबीसी, मुस्लिम और बड़ी संख्या में ब्राह्मणों के वोट के चलते वह सत्ता में आई थीं। लेकिन आज उस सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले में वह सिर्फ ब्राह्मणों पर ही फोकस करती दिख रही हैं, जबकि दलित को वह अपना स्थायी वोटबैंक मानती रही हैं। ऐसे में सवाल यह है कि जब वह 30 फीसदी वोटर पर ही ज्यादा फोकस कर रही हैं तो फिर सत्ता की रेस के लिए जरूरी 40 फीसदी के करीब मत कैसे मिल पाएंगे। मायावती बीते कुछ सालों में पहले के मुकाबले काफी कम सक्रिय नजर आई हैं।
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