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155 साल पहले भी सोशल डिस्टेंसिंग से हुआ था कुंभ  

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 हरिद्वार 
वर्ष 1844, 1855, 1866, 1879 और 1891 का कुंभ मेला महामारी के बीच संपन्न कराया गया था। वर्ष 1844 में हुए कुंभ में ब्रिटिश सरकार ने बाहरी लोगों के आने पर रोक लगा दी थी। अन्य कुंभ को सख्ती बढ़ाकर संपन्न कराया गया। हरिद्वार में इस बार कुंभ कोरोना महामारी के बीच शुरू हो रहा है, लेकिन इससे पहले भी पांच ऐसे मौके आए जब कुंभ के दौरान प्लेग महामारी का साया रहा। वहीं, 155 साल पहले 1866 में हुए कुंभ के दौरान पहली बार सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कराया गया था।
गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के पुस्कालय में रखी कई किताबों में इस बात का जिक्र किया गया है। इसके अनुसार 1866 में संतों-अखाड़ों ने भी सोशल डिस्टेंसिंग का पालन किया था। 

उस वक्त प्लेग महामारी के कारण ब्रिटिश सरकार ने खुले में शौच पर रोक लगा दी थी। जगह जगह कूडेदान भी रखे गए थे। घाटों पर गंदगी नहीं एकत्र होने दी जा रही थी। कैंपों में रहने वाले साधु-संतों और यात्रियों को भी कहा गया कि वे अपने यहां स्थित शौचालय का ही प्रयोग करें। पिछली दो शताब्दी में जब देश में प्लेग महामारी फैली तो कुंभ और अर्द्धकुंभ मेलों में संक्रमण फैल गया और हजारों की तादात में मौते हुईं। वर्ष 1844 के हरिद्वार कुंभ मेले में संक्रमण फैला था। इसके बाद तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने सख्ती की और कुंभ मेले में हरिद्वार आने वाले यात्रियों को रोकना शुरू कर दिया। 

इस बीच जब अस्था को लेकर सवाल पूछे जाने लगे तो ब्रिटिश सरकार को बैकफुट पर आना पड़ा और कुंभ मेले को महामारी के साये के बीच संपन्न कराया गया।  जब महामारी फैली तो ब्रिटिश सरकार ने साफ सफाई पर ध्यान देना शुरू किया और 1866 के हरिद्वार कुंभ के आयोजन की जिम्मेदारी सरकार ने स्वास्थ्य विभाग को दी। ब्रिटिश सरकार के पुलिसकर्मियों ने एक स्थान पर भीड़ बढ़ने से रोकने के लिए तीर्थयात्रियों को लाइन लगवाकर घाटों पर जाने दिया गया था। 

1892 में हैजे की चपेट में आ गया था हरिद्वार
हरिद्वार में फैली महामारी का जिक्र हरिद्वार गंगाद्वारे महातीर्थे पुस्तक में भी मिलता है, जिसको वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार कमलकांत बुद्धकर ने लिखा है। वह बताते हैं कि 1892 में हरिद्वार हैजे की चपेट में पूरी तरह आ गया था। वहीं 1893 और 1897 को भी महामारी के कारण याद किया जाता है। बुद्धकर अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि 1760 में कुंभ में हरिद्वार में संन्यासियों और बैरागियों के बीच भयंकर युद्ध हो गया था। जिसमें बहुत बड़ी संख्या में साधु मारे गए थे। वर्ष 1819, 1927, 1938, 1950 और 1986 के कुंभ वर्ष हरिद्वार के लिए निरापद नहीं रहे।
 

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